कार्टून महज कागज पर खिंची गईं वैसी रेखाएं भर नहीं, जिसे देखकर हम हंसे-मुस्कराएं। कार्टून एक गंभीर विधा है। यह एक रचनात्मक औजार भी जिसका प्रतिरोध के लिए कारगर इस्तेमाल का समृद्ध इतिहास रहा है। कहा जाता है कि हिटलर तक अपने ऊपर बनने वाले व्यंग्यात्मक कार्टूनों से भय खाते थे, उन्हें डर लगता था कि कहीं इसके कारण उनकी सार्वजनिक छवि खराब न हो जाए और जन साधारण उनके खुले विरोध पर आमादा न हो जाए। भारत में शंकर से लेकर आरके लक्ष्मण, काक और सुधीर तैलंग तक कार्टूनिस्टों का एक ऐसा सिलसला कायम रहा है, जिन्होंने इस विधा की गंभीरता को तो बनाए ही रखा, इसे काफी लोकप्रिय भी बनाया। पर दुखद है कि यह समृद्ध पात अब सूनी पड़ती जा रही है। चर्चित एवं लोकप्रिय कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग के देहांत की खबर इस लिहाज से बहुत बड़ी है कि वे न सिर्फ वरिष्ठ और चर्चित कार्टूनिस्ट थे बल्कि उन्होंने समय-समय पर लोकतंत्र में व्यंग्य और असहमति के लिए जरूरी स्पेस को लेकर आवाज भी उठाई। इसके लिए उन्होंने कलम तो उठाया ही, सड़कों पर भी उतरे। अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनकी हिमायत और संघर्ष दोनों ही याद किए जाएंगे। दुखद यह भी रहा कि उनकी उम्र अभी ज्यादा नहीं हुई थी। कैंसर के क्रूर हाथों ने मात्र 56 वर्ष की अवस्था में उन्हें हमसे छीन लिया। वे पिछले डेढ़ साल से ब्रेन कैंसर से पीड़ित थे। उनके परिवार में पत्नी और एक बेटी है। तैलंग का जन्म राजस्थान में हुआ था और वहीं से उन्होंने पढाई-लिखाई की थी। उन्होंने बीएससी करने के बाद अंग्रेजी में एम.ए किया था। तैलंग ने कार्टूनिस्ट के रूप में अपने करियर की शुरुआत 'इलस्ट्रेटेड वीकली' से की थी। राजनेताओं पर बनाए गए उनके कार्टून देशभर में लोगों को आकर्षित करते रहे। कार्टून के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 2००4 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया था। तैलंग ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों अखबारों के लिए काम किया। उनके व्यंग्य की खास बात यह थी कि वह हमेशा सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की वकालत करते रहे। इसके अलावा जनसाधारण को होने वाली परेशानियों को लेकर उन्होंने नेताओं से लेकर पूरे सत्ता प्रतिष्ठान पर बार-बार सवाल उठाए। उनके व्यंग्य में चटीलापन और तल्खी तो होती थी पर स्तरहीनता नहीं। इस सावधानी का उन्होंने बहुत धैर्यपूर्वक निर्वाह किया। आजकल कई कार्टूनिस्ट हल्के अंदाज में अपनी बात कहकर तात्कालिक वाहवाही लूटना चाहते हैं। पर यह तरीका कार्टून जैसी गंभीर विधा को ही कहीं न कहीं कमजोर बनाता है। तैलंग इस कमजोरी के प्रति हमेशा काफी सचेत रहे। पिछले साल जब पेरिस में शार्ली हब्दो के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था तैलंग ने भारत की स्थिति को लेकर भी असंतोष जताया था। उन्होंने पिछली केंद्र सरकार के दौरान शंकर के एक पुराने कार्टून को लेकर हुई राजनीति का हवाला दिया था। दिलचस्प है कि इसके बाद भी पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक कई ऐसे मामले सामने आए जिसमें कार्टूनिस्टों के खिलाफ सियासी सनक ने सारी सीमाएं तोड़ दी। तैलंग इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अशुभ प्रवृत्ति मानते थे। उनका साफ कहना था कि आलोचना से मुंह फेरने का मतलब है कि हम सचाई से घबराते हैं। आज जब उनका निधन हो गया है तो उनका यह सबक सरकार और समाज दोनों ही याद रखें तो अच्छा होगा। अभिव्यक्ति की आजादी की हिमायत और उसकी सुनिश्चतता ही उनके प्रति सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी।
सोमवार, 8 फ़रवरी 2016
आड़ी-तिरछी लकीरों से एक लीक गढ़ गए तैलंग
कार्टून महज कागज पर खिंची गईं वैसी रेखाएं भर नहीं, जिसे देखकर हम हंसे-मुस्कराएं। कार्टून एक गंभीर विधा है। यह एक रचनात्मक औजार भी जिसका प्रतिरोध के लिए कारगर इस्तेमाल का समृद्ध इतिहास रहा है। कहा जाता है कि हिटलर तक अपने ऊपर बनने वाले व्यंग्यात्मक कार्टूनों से भय खाते थे, उन्हें डर लगता था कि कहीं इसके कारण उनकी सार्वजनिक छवि खराब न हो जाए और जन साधारण उनके खुले विरोध पर आमादा न हो जाए। भारत में शंकर से लेकर आरके लक्ष्मण, काक और सुधीर तैलंग तक कार्टूनिस्टों का एक ऐसा सिलसला कायम रहा है, जिन्होंने इस विधा की गंभीरता को तो बनाए ही रखा, इसे काफी लोकप्रिय भी बनाया। पर दुखद है कि यह समृद्ध पात अब सूनी पड़ती जा रही है। चर्चित एवं लोकप्रिय कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग के देहांत की खबर इस लिहाज से बहुत बड़ी है कि वे न सिर्फ वरिष्ठ और चर्चित कार्टूनिस्ट थे बल्कि उन्होंने समय-समय पर लोकतंत्र में व्यंग्य और असहमति के लिए जरूरी स्पेस को लेकर आवाज भी उठाई। इसके लिए उन्होंने कलम तो उठाया ही, सड़कों पर भी उतरे। अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनकी हिमायत और संघर्ष दोनों ही याद किए जाएंगे। दुखद यह भी रहा कि उनकी उम्र अभी ज्यादा नहीं हुई थी। कैंसर के क्रूर हाथों ने मात्र 56 वर्ष की अवस्था में उन्हें हमसे छीन लिया। वे पिछले डेढ़ साल से ब्रेन कैंसर से पीड़ित थे। उनके परिवार में पत्नी और एक बेटी है। तैलंग का जन्म राजस्थान में हुआ था और वहीं से उन्होंने पढाई-लिखाई की थी। उन्होंने बीएससी करने के बाद अंग्रेजी में एम.ए किया था। तैलंग ने कार्टूनिस्ट के रूप में अपने करियर की शुरुआत 'इलस्ट्रेटेड वीकली' से की थी। राजनेताओं पर बनाए गए उनके कार्टून देशभर में लोगों को आकर्षित करते रहे। कार्टून के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 2००4 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया था। तैलंग ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों अखबारों के लिए काम किया। उनके व्यंग्य की खास बात यह थी कि वह हमेशा सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की वकालत करते रहे। इसके अलावा जनसाधारण को होने वाली परेशानियों को लेकर उन्होंने नेताओं से लेकर पूरे सत्ता प्रतिष्ठान पर बार-बार सवाल उठाए। उनके व्यंग्य में चटीलापन और तल्खी तो होती थी पर स्तरहीनता नहीं। इस सावधानी का उन्होंने बहुत धैर्यपूर्वक निर्वाह किया। आजकल कई कार्टूनिस्ट हल्के अंदाज में अपनी बात कहकर तात्कालिक वाहवाही लूटना चाहते हैं। पर यह तरीका कार्टून जैसी गंभीर विधा को ही कहीं न कहीं कमजोर बनाता है। तैलंग इस कमजोरी के प्रति हमेशा काफी सचेत रहे। पिछले साल जब पेरिस में शार्ली हब्दो के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था तैलंग ने भारत की स्थिति को लेकर भी असंतोष जताया था। उन्होंने पिछली केंद्र सरकार के दौरान शंकर के एक पुराने कार्टून को लेकर हुई राजनीति का हवाला दिया था। दिलचस्प है कि इसके बाद भी पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक कई ऐसे मामले सामने आए जिसमें कार्टूनिस्टों के खिलाफ सियासी सनक ने सारी सीमाएं तोड़ दी। तैलंग इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अशुभ प्रवृत्ति मानते थे। उनका साफ कहना था कि आलोचना से मुंह फेरने का मतलब है कि हम सचाई से घबराते हैं। आज जब उनका निधन हो गया है तो उनका यह सबक सरकार और समाज दोनों ही याद रखें तो अच्छा होगा। अभिव्यक्ति की आजादी की हिमायत और उसकी सुनिश्चतता ही उनके प्रति सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी।
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