ज्ञानपीठ पुरस्कार को इस साल पचास साल पूरे हो रहे हैं। यह अलग बात है कि इस साल 49वें ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई है, जो वरिष्ठ हिदी कवि केदारनाथ सिह को दिया गया है। वर्ष के हिसाब से केदारजी को यह सम्मान 2०13 के लिए दिया गया है।
अपनी अर्धशती लंबी इस यात्रा में भारतीय भाषाओं के इस सर्वोच्च और सर्वमान्य माने जाने वाले पुरस्कार को लेकर हर हलके में एक सम्मान का भाव रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण इसका कम विवादित रहना रहा है। पुरस्कारों के अवमूल्यन के दौर में यह उपलब्धि बड़ी बात है।
मुझे याद है कि 2०11 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई तो एक साथ मोबाइल फोन और ईमेल पर कई मैसेज आने लगे। इनमें ज्यादातर इस सूचना को साझा करने वाले थे कि इस बार ज्ञानपीठ सम्मान के लिए चुनी गई हैं वरिष्ठ उडिèया कथाकार प्रतिभा राय।
ताज्जुब हुआ कि गूगल के सर्च इंजन पर एक हफ्ते के अंदर इतनी सारी सामग्री इकट्ठा हो गई कि जिन्होंने पहले प्रतिभा जी को नहीं पढ़ा था, वे भी इस बारे में कई रचनात्मक तथ्यों से अवगत होने लगे। हिदीप्रेमियों के फ़ेसबुक वाल पर प्रतिभा जी की नई-पुरानी तस्वीरें साझा होने लगीं। साथ में सबके अपने मूल्यांकन और टिप्पणियां। हिदी की कई पत्रिकाओं ने इस अवसर पर या तो अपने विशेषांक निकाले या फिर प्रतिभा राय की कहानियों को पुनर्पाठ के लिए पाठकों को प्रस्तुत किया। ईमानदारी से कहूं तो पुरस्कार की घोषणा के बाद ही मैंने भी प्रतिभा जी के बारे में काफी कुछ पढ़ा और जाना-समझा। खासतौर पर उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'द्रौपदी’
को लेकर।
प्रतिभा राय भारतीय साहित्यकारों की उस पीढ़ी की हैं, जिन्होंने गुलाम नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में अपनी आंखें खोलीं। लिहाजा, अपनी अक्षर विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने स्वतंत्र लीक गढ़ने का हौसला दिखाया। उडिèया से बाहर का रचना संसार उनके इस हौसले से ज्यादा करीब से तब परिचित हुआ, जब उनका उपन्यास आया- 'द्रौपदी’। भारतीय पौराणिक चरित्रों को लेकर नवजागरण काल से 'सुधारवादी साहित्य’ लिखा जा रहा है, जिसमें ज्यादा संख्या काव्य कृतियों की है। कथा क्षेत्र में इस तरह का कोई बड़ा प्रयोग नहीं हुआ।
समकालीन जीवन के गठन और चिताओं को लेकर एक बात इधर खूब कही जाती है कि साहित्य के मौजूदा सरोकारों पर खरा उतरने के लिए अब 'बिबात्मक’ औजार से ज्यादा जरूरी है- 'कथात्मक हस्तक्षेप’। मौजूदा भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जारी दुराग्रहों पर हमला बोलने के लिए प्रतिभा राय ने इस दरकार को समझा। 'द्रौपदी’ में वह विधवाओं के पुनर्विवाह को लेकर सामाजिक नजरिया, पति-पत्नी संबंध और स्त्री प्रेम को लेकर काफी ठोस धरातल पर संवाद करती हैं। इस संवाद में वह एक तरफ जहां पुरुषवादी आग्रहों को चुनौती देती हैं, वहीं भारतीय स्त्री के गृहस्थ जीवन को रचने वाली विसंगतिपूर्ण स्थितियों पर भी वह संवेदनात्मक सवाल खड़ी करती हैं।
बहरहाल, 'द्रौपदी’ उपन्यास की रचयिता का रचना संसार काफी विषद और विविधतापूर्ण है। कथा साहित्य के साथ कविता के क्षेत्र में भी वह अधिकारपूर्वक दाखिल हुई हैं। उनका रचनाकर्म अभी न तो थका है और न ही विराम के करीब है, इसलिए उनसे आगे और महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों की उम्मीद है।
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