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बुधवार, 28 मई 2014

नमो फंडा भी और झंडा भी


पिछले दो दशकों में देश में जीवन, समाज और सरोकारों को लेकर जो एक नई समझ बनी है, उसे एड्रेस करने में देश की राजनीति हाल तक असफल रही है। नरेंद्र मोदी का नेतृत्व और उनका बढ़ता आभा मंडल इसी नाकामी की कोख से पैदा हुआ है। मोदी जिस नए भारत के नेता हैं उसमें नवमध्य वर्ग और ग्लोबल दौर की नई युवा पीढèी का रकबा सबसे ज्यादा है। इस बढ़े दायरे के बीच एक द्बंद्ब भी है, नागरिक अस्मिता और उपभोगवादी चेतना के बीच।
मोदी इन तमाम स्थितियों को समझते हैं और इस समझदारी के अनुरूप ही वे लगातार खुद को ढालते चले गए हैं। उनकी स्कूलिंग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जरूर है। पर वे अपने जड़ों से आज भी नहीं कटे हैं पर शाखों पर नए पत्ते जरूर आए हैं। वैसे भी परंपरा के रूढ़ता में बदल जाने के खतरे को लेकर जो लोग खुद को आगाह नहीं करते, उनके अतीत के पन्नों में खो जाने में देर नहीं लगती।
हर बात में चौकन्नादिल्ली विश्वविद्यालय में एसआरसीसी के छात्रों को जब वे संबोधित करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे प्रबंधन क्षेत्र के किसी धुरंधर की तरह बात कर रहे हों। ऐसे मौकों पर वे अपने दिखने-बोलने की शैली को लेकर खासतौर पर चौकन्ने रहते हैं।
उनका यह चौकन्नापन किस तरह का है, यह तब विशेष तौर पर लोगों की निगाहों में आया था, जब सद्भावना के लिए किए अनशन जैसे सादे और गरिमामय अवसर पर भी कैमरे की नजर से बचकर बालों पर कंघी फेरना वे नहीं भूले। यह किसी आदर्शवाद के खिलाफ स्थिति नहीं बल्कि भारतीय समाज में तेजी से प्रसारित हुआ नया युगबोध है और इस बोध से जुड़ने में मोदी को कोई हिचक नहीं है। मोदी यहीं अपने समकालीन नेताओं की पांत से अलग खड़े हो जाते हैं। इसी वजह से वे अपनी पार्टी के कई पुराने नेताओं से भिन्न मालूम पड़ते हैं और कइयों के लिए आदर्श।
देश की संसद खाद्य सुरक्षा बिल पर बहस करती है और इस दौरान कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की तबीयत बिगड़ती है, तो सरकार या कांग्रेसजन की तरफ से कोई जानकारी आए, इससे पहले ट्विटर पर उनका संदेश आ जाता है।
इसी तरह जिस दिन वह पीएम पद की शपथ लेने वाले होते हैं तो सुबह सबसे पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर जाते हैं। वे जब वहां से लौटते हैं तो मीडिया को वे खुद बताते हैं कि वे गुजरात भवन नहीं जा रहे बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का आशीष लेने जा रहे हैं। इससे पहले उनके इस कार्यक्रम के बारे में मीडिया को कोई जानकारी नहीं थी।
बदले तकाजे का अहसास
ऐसे चौकस और फुर्तीले मोदी को पता है अरब बसंत के दौर में बदलाव और नेतृत्व के तकाजे बदल गए हैं। इसमें एक तरफ देशप्रेम है तो दूसरी तरफ अभिव्यक्ति का खुलापन। एक तरफ समाज, संबंध और सरोकारों की नई दुनिया है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार और स्त्री असुरक्षा के खिलाफ गुस्सा भी है।
इस सबके साथ एक बात यह भी कि अब उपलब्धि का मतलब ही वर्टिकल हो गया है, यानी द्रुत और दूर तक दिखने वाला विकास। एक ऐसा विकास जो न सिर्फ जरूरी हो बल्कि चमकदार भी हो ताकि उसकी अच्छे से मार्केटिंग हो सके।
ऐसा नहीं है कि मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात बाकी विकसित राज्यों को पीछे धकेलता हुआ काफी आगे निकल गया या अब उनके दिल्ली के तख्त पर बैठते ही ऐसा कुछ हो जाएगा। पर एक बात तो जरूर है कि बात चाहे राज्य में पनबिजली परियोजनाओं की हो या बिजली-सड़क-पानी की, पिछले एक दशक से ज्यादा समय में वहां काफी काम हुआ है और लोगों के जीवन में इससे काफी फर्क भी आया है। रही बात औद्योगिक ढांचे और अन्य राज्यों और विदेशों से निवेश की करें तो गुजरात निश्चित रूप से ऐसे तमाम प्रस्तावों का अल्टीमेट डस्टिनेशन है।
मोदी की खासियत यह है कि वे काम के साथ काम की और अपनी मार्केटिंग करना भी जानते हैं, नहीं तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी भाजपा की सरकारें हैं और वहां भी काम अच्छा हो रहा है। पर इसका श्रेय उस तरह न तो शिवराज सिंह चौहान को मिल रहा है और न रमन सिंह को। ये इन दो नेताओं की नाकामी नहीं बल्कि व्यक्तित्व का अंतर है। मोदी ने अपना व्यक्तित्व और छवि समय के अनुसार बदला है, उन्हें होना, करना और दिखना के बीच का रिस्ता समझ में आता है। यही कारण है कि वे कामयाब भी हैं और लोकप्रिय भी।
डांडिया से पतंगबाजी तक
मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले अगर आप उनकी गुजरात में बढ़ी लोकप्रियता के एजेंडे पर गौर करें तो उसमें हर वे तत्व मिलेंगे जो नए मूल्यबोध पर खरे उतरते हैं। डांडिया से लेकर पतंगबाजी तक सब अब वाइब्रेंट गुजरात के रंग में नहाया है। खास बात यह है कि यह सब करते हुए नरेंद्र मोदी परंपरा विरोधी नहीं बल्कि पुरानी और नई परंपराओं की साझी जमीन पर खड़े हुए दिखते हैं। स्वामी विवेकानंद, सरदार वल्लभभाई पटेल से लेकर अमिताभ बच्चन तक हर उस नाम के साथ वे जुड़ते हैं जिनकी अपीलिंग पावर आज भी असंदिग्ध है।
 

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