बदकिस्मती से ये मुद्दा अलग-अलग संदर्भों में आजादी के समय भी खड़ा हुआ, फिर जयप्रकाश आंदोलन के दौरान और हाल में सिविल सोसाइटी द्बारा। पर तीनों ही मौकों पर सरकार और उसकी केंद्रित शक्ति को थामने की सियासी लालसा रखने वाली जमात ने इसकी अनदेखी की। दरअसल, इस दरकार पर खरा उतरने का मतलब है जनता पर राज करने और फिर उस पर कृपा बरसाने की राजसी शैली का खारिज होना।
इस संबंध में एक प्रसंग की चर्चा जरूरी है। गांधी ने जो राष्ट्र निर्माण की कल्पना की थी, उसे उनके आलोचक अव्यावहारिक और थोथा आदर्शवाद बताते रहे हैं। आर्थिक समझ को लेकर तो गांधी को आमतौर पर गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। पर वस्तुत: ऐसा है नहीं। दरअसल, राष्ट्रपिता को लेकर ऐसा मानस बनाने वालों में वे तमाम लोग शामिल हैं, जिन्हें सत्ता के गलियारे में अपनी आवाजाही बनाए रखना सबसे जरूरी जान पड़ता है। सत्ता की ताकत से न तो लोकतंत्र की ताकत बढ़ती है और न ही इससे कोई कल्याणकारी मकसद हासिल किया जा सकता है। गांधी ने इसीलिए आजादी मिलते ही कांग्रेस के विसर्जन की भी बात कही थी। उनके अनन्य और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा की एक किताब है-'द इकोनमी ऑफ परमानेंस’। दुनियाभर के आर्थिक विद्बानों के बीच इस किताब को बाइबिल सरीखा दर्जा हासिल है। आज अमत्र्य सेन और ज्यां द्रेज सरीखे अर्थशास्त्री जिस कल्याणकारी विकास की दरकार को सामने रखते हैं, उसके पीछे का तर्क कुमारप्पा की आर्थिक अवधारणा की देन है। कुमारप्पा इस किताब में साफ करते हैं कि विकेंद्रित स्तर पर 'संभव स्वाबलंबन’ को मूर्त ढांचे में तब्दील किए बिना देश की आर्थिक सशक्तता की मंजिल हासिल नहीं की जा सकती है। पर निजी क्षेत्र की केंद्रित पूंजी की अठखेली के लिए 'सेज’ बिछाने वाली सरकारों को इन सरोकारों से कहां मतलब कि जनता तक मदद के हाथ पहुंचने से ज्यादा जरूरी है, वह भरोसा और हक, जिसमें वह अपने बूते अपनी जिम्मेदारियों का वहन कर सके।
समावेशी विकास का जो नया जुमला देश में उछला है, उसके पीछे वजह यही रही है कि वर्टिकल ग्रोथ के दौर में विकास की चादर इतनी सिकुड़ती चली गई कि देश की बड़ी आबादी का हिस्सा उससे बाहर ही रह गया। आंकड़ों में किसानों की आत्महत्या और गरीबी की जो भयावह तस्वीर उभरी है, वह विकास की उदारवादी व्यवस्था पर सामने से उंगली उठाती है। नागरिक अस्मिता को महज एक उपभोक्ता की हैसियत में बदल देने वाले मनमोहनों से पूछना चाहिए कि आजादी के आसपास जब डॉलर और रुपए की हैसियत तकरीबन बराबर थी, फिर अर्थ के कल्याणकारी मार्ग को छोड़कर महज आवारा निजी पूंजी के लिए उदार राह क्यों चुनी गई? क्या यह एक बड़ी आबादी वाले देश की श्रमशक्ति और पुरुषार्थ के प्रति अविश्वास नहीं है कि उनके बूते विकास की तस्वीर मुकम्मल नहीं हो सकती।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो आजादी के बाद सरकार की जो नीतिगत समझ थी उसमें विकास को सार्वजनिक उपक्रमों के जरिए वह आगे बढ़ा रही थी, उस दौरान भी कल्याणकारी अर्थव्यवस्था और राज व्यवस्था की बात होती थी। दस साल पहले तक सरकारी पाठ्यपुस्तकों में इस बारे में सैद्धांतिक समझ विकसित करने के लिए बच्चों के लिए अलग से पाठ तय थे। पर बाजार का दौर आते-आते देश की पूरी व्यवस्था ने जो बड़ी करवट ली, उसमें पुरानी लीक नई सीख के आगे छोटी पड़ गई। नई दरकारों ने नए सरोकारों की जमीन तैयार कर दी। शुरुआत यहां से हुई कि जनकल्याणकारी होने के नाम पर सरकार अपने कंधे पर अतिरिक्त बोझ न उठाए। तालीम की सरकारी व्यवस्था से लेकर सार्वजनिक उपक्रमों की उपेक्षा ने देश में निजी क्षेत्र की ताकत को रातोंरात खासा बढ़ा दिया।
अब तो आलम यह है कि बिजली-पानी-सड़क मुहैया कराने तक में सरकार ने अपने हाथ समेटने शुरू कर दिए हैं। बात इतने पर ही थमती तो भी गनीमत थी। सरकार ने तो बजाप्ते निजी समूहों के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर तमाम वित्तीय सहूलियतें देने की जवाबदेही अपने कंधों पर उठा रखी है।
गरीबों की फिक्रमंदी में तारीख रचने का दंभ भरने वाली यूपीए सरकार से कोई पूछे कि जिस एजेंडे को वह जनहित में लागू करने में जुटी है क्या वह जनता के स्तर पर या उसकी मांग पर तय हुए हैं। जनता अपना सरोकार जिन मुद्दों पर दिखा ही नहीं रही है सरकार उस पर आगे क्यों बढ़ रही है? फिर इसे कोई महज वोट पॉलिटिक्स कहे तो इसमें गलत क्या है? सस्ता राशन या मुफ्त भोजन का लालच एक वोटर को महज वोटर कहां रहने देता है। कम से कम पिछले चार सालों में देश को जिन मुद्दों ने सबसे ज्यादा झकझोरा है, उनमें भ्रष्टाचार, महंगाई और महिला असुरक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर रहा। इन मुद्दों को लेकर जनता एकाधिक बार सड़कों पर उतरी और वह भी बिना किसी सियासी छतरी में खड़े हुए बिना। उनके हाथों में कुछ था तो बस कुछ मांगें और मार्मिक आह्वान की तख्तियां या फिर तिरंगा। पर इनमें से किसी मुद्दे से मुठभेड़ को सरकार तैयार नहीं है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल संस्था को खड़ा करने की उसकी कवायद का तो हश्र यही है कि सरकार अपने अब तक के कार्यकाल में खुद कई बड़े भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरती रही है। आलम यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने दागी चरित्र के लोगों की सांसदी-विधायकी जाने की बात कही और उनके चुनाव लड़ने तक पर सवाल उठा दिए तो सरकार तो क्या पूरी पॉलिटिकल क्लास उसके तोड़ को लेकर सहमत हो गई। नैतिकता के इतने मजबूत जोड़ के साथ वेलफेयर तो दूर, कुछ भी फेयर रहना मुश्किल है।
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