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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

बर्बर देश ओबामा का


किसी भी खतरे से ज्यादा खतरनाक होता है, उस खतरे का खौफ। ठीक वैसे ही जैसे सुरक्षा से बड़ी होती है उसकी चुनौती। 9/11 के बाद अमेरिका अब भी इस चुनौती को सहजता से साध नहीं पाया है। आज भी अमेरिका न  सिर्फ खौफजदा है बल्कि उसके आगे आतंकी हिंसा का जिन्न अब भी नाच रहा है।  लिहाजा, सुरक्षा के नाम पर उसकी कई कवायदों का विरोध रह-रहकर होता रहा है। यह और बात है कि कहने के लिए उसके पास यह उपलब्धि भी है कि वह इस दौरान आतंकवादी हिंसा से मुक्त रहा है। दरअसल, नागरिक सम्मान, रंगभेद विरोध और मानवाधिकार सुरक्षा के जो प्रवचन अमेरिका बाकी दुनिया को सुनाता रहा है, वह अपने ही घर में उसका मुंह चिढ़ाता है।  मामला अमेरिकी एयरपोर्ट पर भारत सहित दूसरे देशों के लोगों के साथ सुरक्षा जांच का हो या सिखों को पगड़ी और महिलाओं के साड़ी पहनने पर जताए जाने वाले सुरक्षा एतराज का, इतना तो साफ लगता है कि ये मुद्दे सुरक्षा मुस्तैदी से ज्यादा उसे अंजाम देने के तौर-तरीके को लेकर ज्यादा गरमाते  हैं।
नया मामला कैलीफोर्निया में गैरकानूनी रूप से चल रहे ट्राई वैली यूनिवर्सिटी (टीवीयू) के झांसे का शिकार हुए भारतीय छात्रों का है। अखबारों और टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें दिखाई गयीं, वह उस मध्यकालीन बर्बरता की याद दिलाते हैं कि कैसे तब दास बना लिए लोगों के पांव और गर्दन में बेड़ियां डालकर उन्हें धिक्कारा जाता था, मारा-पीटा जाता था। पांव में बेड़ी सरीखे रेडियो कॉलर पहनने को मजबूर हुए छात्रों को लेकर भारत की चिंता वाजिब है। यह यूनिवर्सिटी अब बंद भले है, लेकिन इसका खुलना और चलना अमेरिकी कानून और सम्बंधित  विभागों की अपनी नाकामी का हश्र है। इसका ठीकरा दूसरों पर नहीं फोड़ा जा सकता। विदेश मंत्रालय ने फौरी मांग की है कि भारतीय छात्रों के साथ अच्छा सलूक होना चाहिए और उन पर मॉनिटर का इस्तेमाल अनुचित है। गौरतलब है कि इस तरह के रेडियो कॉलर का इस्तेमाल आमतौर पर जंगली जानवरों की गतिविधियों  पर नजर रखने के लिए किया जाता है। अमेरिकी सुरक्षा नीतियों की ज्यादतियों का शिकार हुए ज्यादातर छात्र आंध्र प्रदेश के हैं। अमेरिकी तेलुगू संघ के जयराम कोमती की इस मुद्दे पर शिकायत है कि गलती टीवीयू की है, जिसने कुछ नियम तोड़े। इसका खामियाजा बेवजह छात्रों को उठाना पड़ रहा है। दिलचस्प है कि मिस्र के मौजूदा राजनैतिक संकट पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में ही जोर देकर कहा है कि मिस्र में लोगों को हर वो अधिकार प्राप्त है जो दुनिया के किसी हिस्से में किसी नागरिक समाज को प्राप्त है, लिहाजा उनके शांतिपूर्ण विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों को किसी सूरत में खत्म नहीं किया जा सकता। अब कोई चाहे तो लगे हाथ अमेरिकी प्रशासन से सवाल कर सकता है कि वह अपने यहां पढ़ने आए छात्रों को किस गुनाह की सजा दे रहे हैं। इन छात्रों की अब तक कि किस गतिविधि से उसे ऐसा लगता है कि उनके साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए जैसा किसी जानवर के साथ। और यह भी कि क्या अमेरिकी प्रशासन की नजर में यह कार्रवाई तब भी मान्य होती जब ऐसा ही बर्ताव किसी अमेरिकी के साथ किसी दूसरे देश में होता तो।
साफ है कि अमेरिका को ऐसा लगता है कि दुनिया में आज भी उसकी ऐसी हैसियत है कि अपनी किसी सनक या अतिवादी कदम के विरोध को वह आसानी से मैनेज कर लेगा। इससे पहले का अनुभव कमोबेश यही है। इसलिए दरकार इस बात की है कि भारत सरकार को इस बार निर्णायक पहल के साथ आगे बढ़ना चाहिए ताकि यह मामला महज ठंडे बस्ते में न चला जाए बल्कि आगे से ऐसी कोई नौबत ही न आए। आखिर यह नए विकसित और शक्तिशाली भारत के भी साख का सवाल है। अब तक की स्थिति में भारत के इस पूरे प्रकरण के कठोर शब्दों  में निंदा और विरोध करने के बावजूद कोई आश्वस्तकारी प्रतिक्रिया अमेरिका की तरफ से नहीं आई है। हां, यह जरूर है कि भारत अपने लोगों को मुमकिन है कि वहां से सुरक्षित बाहर निकाल लाए, जो वहां फंसे हैं। पर उस बदसलूकी का क्या जो वहां हमारे लोगों के साथ लगातार हो रहे हैं। क्या भारत इस मामले में अमेरिका को झुकाने की हैसियत रखता है। अगर नहीं तो इस महादेश को बड़ा बाजार बनने और बड़ी इकोनामी बनने के साथ इस ताकत का मालिक होने के बारे में भी फिक्रमंद होना चाहिए।     

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