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मंगलवार, 28 जनवरी 2014

अरब की स्त्री और फेकी

भारत बाजार के लिए भले पिछले दो दशकों में ज्यादा उदार हुआ हो पर विचार के क्षेत्र में उसकी उदारता काफी पहले से रही है। भारतीय चिंतन का चरित्र समन्वयवादी इसलिए है क्योंकि नए विचारों का हमने हमेशा खुले हाथों से स्वागत किया है। बहरहाल, ये बातें यहां इसलिए क्योंकि हम चर्चा करने जा रहे हैं एक ऐसी लेखिका की जो भारतीय नहीं हैंऔर न ही भारतीय जीवन और समाज को लेकर उन्होंने कोई उल्लेखनीय कार्य किया है। पर उन्हें पढ़ने-सुनने के लिए यहां के प्रबुद्ध लोगों में गजब का आकर्षण है।
दरअसल, हम बात कर रहे हैं ब्रितानी लेखिका और पत्रकार शिरीन एल फेकी की। शिरीन का अरब की महिलओं को लेकर अध्ययन काफी चर्चित रहा है। उनकी किताब है 'सेक्स एंड दी सिटेडेल : इंटीमेट लाइफ इन ए चेंजिग अरब वर्ल्ड’। इसमें उन्होंने अरब की महिलाओं के जीवन के अंतरंग अनुभवों को बेबाकी से सामने रखा है। दिलचस्प है कि महिलाओं को लेकर अरब का समाज आज भी बहुत खुला नहीं है। वहां पर्दा प्रथा जैसी तमाम मध्यकालीन परंपराएं और मान्यताएं आज भी प्रचलन में हैं, जो वहां की महिलाओं को बाहरी दुनिया में खुलकर सांस लेने से रोकती हैं।
शिरीन पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत करने आई थीं। वहां एक संवाद सत्र में उन्होंने कहा कि लोगों को उनका काम इसलिए आकर्षक लगता है क्योंकि इसका केंद्रीय विषय सेक्स है। पर यह उनके काम को महत्वहीन करने वाला नजरिया है। इस तरह के नजरिए के कारण महिलाओं के जीवन से जुड़ी कई समस्याओं और उनके उत्पीड़न के मुद्दों को सही तरीके से समझने की कोशिश अनावश्यक रूप से प्रभावित होती है।
फेकी ने कहा कि सेक्स पर बातें करते हुए मैंने अरब दुनिया में पांच वर्ष बिताए हैं। कई लोग यह सोच सकते हैं कि यह दुनिया का बेहतरीन काम है। पर ऐसा नहीं है क्योंकि वे अरब की महिलाओं की जिंदगी के उन पन्नों को खोलना चाहती थीं, जिसके बारे में आमतौर पर बात नहीं होती है।
अपने बारे में फेकी बताती हैं कि वे ब्रितानी जरूर हैं पर उनकी परवरिश वहां नहीं हुई। उनके पिता वेल्स के और मां मिस्त्र की हैं। मां-पिता के कनाडा चले जाने के कारण उनकी पढ़ाई भी बाहर ही हुई। सितंबर 2००1 में अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमला होने तक उन्होंने अरब दुनिया के साथ कभी कोई जुड़ाव महसूस नहीं किया था। पर इसके बाद इस्लामी मुल्कों, खासतौर पर अरब की महिलाओं के जीवन को लेकर उनके मन में कई तरह की जिज्ञासा और सवाल पैदा हुए।
फेकी को जब 'द इकोनामिस्ट’ अखबार के लिए स्वास्थ्य संवाददाता के रूप में काम करने का मौका मिला तो उन्होंने एचआईवी पर एक महत्वपूर्ण स्टोरी की। इसी क्रम में पुरातनपंथी मूल्यों वाले अरब मुल्कों की महिलाओं के साथ उन्हें बातचीत का मौका मिला।
फेकी का मानना है कि समाज का व्यवहार शयनकक्ष के बंद दरवाजे के पीछे जो कुछ घटित होता है, उससे गहरे तौर पर जुड़ा होता है। पर लोग इश बात को गहराई से नहीं समझते हैं।
अरब की महिलाएं इस लिहाज से बाकी दुनिया से कतई अलग नहीं हैं कि प्यार और संवेदना को लेकर उनका दिलो दिमाग किसी और तरह की बनावट का है। बल्कि सच तो यह है कि यहां की महिलाओं की जीवन के कुछ कोमल अनुभवों को लेकर आपबीती इतनी खुरदरी और उत्पीड़न भरी है कि उसके बारे में जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
फेकी कहती हैं कि अरब मुल्कों की महिलाओं के बारे में आमतौर पर जिस तरह की बातें की जाती हैं, वह सचाई से निहायत परे हैं। अगर आज आधी दुनिया लैंगिक समानता और देह पर अधिकार जैसे महिलावादी तकाजों पर मुट्ठी बांध रही हैं तो उसमें अरब की महिलाओं का संघर्ष अलग से रेखांकित होना चाहिए। फेकी भी इस तकाजे को ही अपना लेखकीय मिशन मानती हैं।

संबोधन में छिपा चिंताओं का समाधानकारी सार

देश ने जब इस बार 65वां गणतंत्र दिवस मनाया तो उसके मन में उल्लास के साथ कई सवाल भी थे। ये सवाल भी कोई रातोंरात पैदा हुए हों, ऐसा नहीं है। अलबत्ता यह जरूर है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में जिस तरह कुछ मुद्दों और खतरों को रेखांकित किया, उनसे ये सवाल एकदम से सतह पर आ गए। राष्ट्रपति महोदय ने देश के लोकतंत्र को लेकर यह चिंता जताई है कि एक तरफ तो जनता गुस्से में है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्तर पर अराजकतावादी आचरण दिख रहे हैं।
सनसनी पैदा करने की गरज से राष्ट्रपति के इस संबोधन की कुछ लोग मन माफिक व्याख्या कर रहे हैं। इसमें मीडिया का भी एक तबका शामिल है। दरअसल, इस स्थिति को समझने के लिए हमें बीते कुछ सालों के घटनाक्रमों को देखना होगा। देश का नागरिक समाज जनता को साथ लेकर इस दौरान एक नए तरह के लोकमत के निर्माण में लगा है। लोकमत निर्माण की यह प्रक्रिया प्रतिक्रियावादी और सुधारवादी दोनों है। प्रतिक्रियावादी इस लिहाज से कि इसमें एक तरफ तो इस बात की खीझ है कि सत्ता और जनता का साझा आचरण बदल गया है। केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारें 'जनता का शासन’ चलाने की बजाय 'जनता पर शासन’ कर रही हैं। नतीजतन सरकारी सोच और काम की प्राथमिक शर्त अब न तो लोक कल्याणकारी है और न ही पारदर्शी। इस स्थिति पर देश के प्रथम नागरिक ने भी टिप्पणी की है। उन्होंने कहा है, 'यदि भारत की जनता गुस्से में है, तो इसका कारण है कि उन्हें भ्रष्टाचार तथा राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी दिखाई दे रही है।’
देश के नागरिक समाज ने इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ लोकतांत्रिक दरकारों और सरोकारों को बार-बार रेखांकित किया है। इसमें सबसे अहम् मुद्दा है प्रातिनिधिक लोकतंत्र के ढांचे को संभव स्तर तक प्रतिभागी बनाना। जनलोकपाल आंदोलन के प्रकटीकरण के पीछे के कारणों को अगर समझें तो साफ होता है कि जनता अपने लिए सुविधा ही नहीं नीति और कानून निर्माण के लिए भी सड़क पर उतर सकती है। महज इतना ही नहीं, सरकार के आगे जनता इस बात का भी लोकतांत्रिक दबाव बना सकती है कि वह महज उसके लिए नहीं बल्कि उसके साथ बैठकर जरूरी फैसले करे।
दिलचस्प है कि अराजनीतिक रूप से चल रही इस तरह की सुधारवादी कोशिश ने अब राजनीतिक विकल्प की भी शक्ल ले ली है। पर एक बड़ी कोशिश के ठोस विकल्प बनने की प्रक्रिया सघन और सुचिंतित होनी चाहिए। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत और फिर सरकार बनाने की घटना काफी अफरातफरी भरी रही है। आप ने जिस तरह के वादे जनता से किए और फिर सरकार बनाने के बाद वह जिस तरह अराजक स्थितियों को जन्म दे रही है, उसने कई सवाल खड़े किए हैं।
इस स्थिति पर राष्ट्रपति की टिप्पणी गौरतलब है। उनके ही शब्दों में, 'चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारणाओं को आजमाने की अनुमति नहीं देते हैं। जो लोग मतदाताओं का भरोसा चाहते हैं, उन्हें केवल वही वादा करना चाहिए जो संभव है। सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं है। लोकलुभावन अराजकता, शासन का विकल्प नहीं हो सकती।’
देश की मौजूदा स्थिति और राजनीतिक स्तर पर बदलाव की कम-ज्यादा संभावनाओं के बीच देश के प्रथम नागरिक की टिप्पणियों और चिंताओं पर जब विचार करते हैं तो इससे काफी हद तक समाधान मिलता है। हालांकि यहीं से कुछ नए सवालों का प्रस्थान बिंदु भी तैयार हो जाता है। समाधान की बात यह है कि जैसा कि महामहिम खुद कहते हैं, 'मैं निराशावादी नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि लोकतंत्र में खुद में सुधार करने की विलक्षण योग्यता है। यह ऐसा चिकित्सक है जो खुद के घावों को भर सकता है और पिछले कुछ वर्षों की खंडित तथा विवादास्पद राजनीति के बाद 2०14 को घावों के भरने का वर्ष होना चाहिए।’
सवालों की नई जमीन इस पर तैयार हो गई है कि राष्ट्रपति को अभी ये सारी बातें कहने की जरूरत क्यों पड़ी। क्या इससे पहले का देश का लोकतांत्रिक इतिहास उन चिंताओं से सर्वथा मुक्त रहा, जिस पर आज चिंता जताई जा रही है? क्या देश लोकतांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन की इमरजेंसी जैसी हिमाकत तक पहुंच गया है? क्या सरकारी अराजकता का नया खतरा 1984 में सिख दंगों के दौरान 'एक बड़ा पेड़ गिरने पर धरती के स्वाभाविक कंपन’ से भी बड़ा है? सवाल यह भी कि लोकतंत्र क्या इतना लकीर का फकीर है कि उसे आंदोलन और बदलाव जैसी स्थितियां या तो असंवैधानिक लगती हैं, या फिर अमर्यादित?
बहरहाल, इस मुद्दे पर यह तो मानकर ही चलना चाहिए कि राष्ट्रपति महोदय ने जो भी बातें कहीं, वह किसी एक घटना, सरकार या पार्टी तक सीमित न होकर संपूर्ण राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण होंगी, नहीं तो अनावश्यक विवाद पैदा होगा। अलबत्ता इस पूरे विमर्श में कुछ चीजें पहले से जरूर साफ होनी चाहिए। एक तो यह कि बीते दो-तीन सालों में जनता एकाधिक बार सरकार के खिलाफ अपने आक्रोश को लेकर सड़कों पर उतरी तो विरोध प्रदर्शन का यह तरीका हर लिहाज से अहिंसक था।
लिहाजा, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि कम से कम जनता की मन:स्थिति अब भी हिंसक या अराजक नहीं है। रही दिल्ली की आप की सरकार और उसके कामकाज के तौर-तरीके की तो इस बारे में सर्वसम्मत सराहना की स्थिति तो कतई नहीं है। यह जरूर है कि सरकार और जनता के बीच साझेदारी बढ़ाने के लोकतांत्रिक तकाजे को जरूर आप ने फिर से रेखांकित किया है। क्योंकि कम से कम यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल को देखें तो इस दौरान न सिर्फ जनता की नजरों में सरकार की विश्वसनीयता में कमी आई है बल्कि पूरी राजनीतिक जमात की साख पर भी बट्टा लगा है।
सार्वजनिक जीवन की गरिमा में आए इस तरह के ह्रास को सादगी और ईमानदारी जैसी कुछ कसौटियों पर चुनावी चुनौती की पटकथा जिस तरह आप ने दिल्ली में लिखी और आगे लोकसभा चुनाव में उसके विस्तार को लेकर वह जिस तरह से ललक से भरी है, वह थोड़ा सोचने पर मजबूर करती है। आज हर तरफ से आप को इस सवाल से दो-चार होना पड़ रहा है कि उसकी वैचारिक अवधारणा का सार क्या है। कोई क्रांति कम से कम विचार शून्यता से तो नहीं पैदा हो सकती है। ऐसे लोग चुनावी राजनीति में जनता को विकल्प के नाम पर गुमराह भी कर सकते हैं। इस स्थिति पर चिंता महामहिम ने भी जताई है- 'चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारणाओं को आजमाने की अनुमति नहीं देते हैं।’ राष्ट्रपति का यह कथन उन सवालों का जवाब और चिंताओं का समाधानकारी सार है, जिस पर उनकी ही कही कुछ बातों के बाद हर तरफ चर्चा हो रही है।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

जन गण का नया मन


इन दिनों भारतीय राजनीति को कई चीजें एक साथ मथ रही हैं। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक सुखद लक्षण भी है क्योंकि एक तरफ जागरूक लोकतंत्र अपनी केंद्रीय उपस्थिति के लिए मचल रहा है तो वहीं परंपरागत की जगह नई राजनीतिक परंपरा की भी बात हो रही है। अगले कुछ महीनों में लोकसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में भारतीय जन गण के नए मन के साथ करवट बदलती देश की राजनीति पर प्रेम प्रकाश की कवर स्टोरी
भारतीय जन-गण का नया मन बदलाव और संभावनाओं के साझे से बना है। देशकाल से जुड़े तमाम सरोकारों के साथ अहिंसा और आंदोलनों का नया मेल भारतीय गणतंत्र में कोई नया अध्याय जोड़े या न जोड़े पर इसने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर कुछ सामयिक दरकारों को जरूर रेखांकित कर दिया है।
दरअसल, 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिंसक प्रयोगों को आजमाया गया तो इस बदले सूरते हाल को एक क्रांतिकारी संभावना के तौर पर हर तरफ देखा गया। मीडिया में तो खासतौर पर इसकी चर्चा रही। अमेरिका और यूरोप से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिंग लगीं कि भारत में फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं।
दिलचस्प है कि सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकर्ताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के बाद इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
सवालों-सरोकारों की नई जमीन
गौरतलब है कि देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण का जो दौर शुरू हुआ है, उसमें कुछ सवाल और मुद्दे बार-बार उठाए जा रहे हैं। क्या लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा
रहा है?
ये तमाम वे मुद्दे और सवाल हैं, जो बीते कुछ सालों में जनता के बीच उभरे, खुली बहस का हिस्सा बने। जनता के मूड को देखते हुए या तो ज्यादातर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने इनका समर्थन किया या फिर विरोध की जगह एक चालाक चुप्पी साध ली।
पारदर्शी सरकारी कामकाज और उस पर निगरानी के लिए अधिकार संपन्न लोकपाल की नियुक्ति जैसे सवालों पर तो संसद तक ने अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। चुनाव सुधार के मुद्दे पर भी तकरीबन एक सहमति हर तरफ दिखी। पर अब जबकि लोकसभा चुनाव होने हैं तो इनमें से शायद ही कोई मुद्दा हो, जो किसी राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडे में शुमार हो। इस बार भी चुनावी वादे के नाम पर कच्ची-पक्की सड़कों के या तो किलोमीटर गिनाए जाएंगे या फिर मुफ्त अनाज या लैपटॉप बांटने के लालची वादे।
अण्णा आंदोलन से छिटक कर बनी आम आदमी पार्टी जरूर इनमें से कुछ मुद्दों को लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरी है, पर उनकी महत्वाकांक्षा और जल्दबाजी से उनके आदर्शवादी कदमों की व्यावहारिकता पर सवाल उठते हैं। दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अरविंद केजरीवाल जिस तरह अपनी पूरी कैबिनेट के साथ धरने पर बैठ गए, वह आम आदमी का नाम लेकर बनी पार्टी और उसके नेताओं के अराजकतावादी इरादों को साफ करता है।
परिवर्तन फैशनेबल चीज नहीं
गौरतलब है कि जिन सवालों, सरोकारों और मुद्दों के सामयिक जनतांत्रिक तकाजों से देश की परंपरागत सियासी जमातें ठीक से कनेक्ट नहीं कर पा रही हैं, उसकी वजह एक ही है। यह वजह है 'परिवर्तन’ को लेकर समझ। दरअसल, परिवर्तन कोई फैशनेबल चीज नहीं, जिसे जब चाहे प्रचलन में ला दिया और जब चाहे प्रयोग से बाहर कर दिया। फिर यह टू मिनट नूडल्स भी नहीं कि बस कुछ ही समय में बस जो चाहा हासिल कर लिया। इसलिए जिस राजनीतिक व्यवस्था ने पिछले छह दशकों से ज्यादा के समय में अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है, उसकी बाहें मरोड़ना कोई आसान बात नहीं। बात करें 'आप’ की तो वह इनमें से कुछ मुद्दों को उठाती जरूर है पर इसे लेकर उसका कंसर्न भी बहुत जेनुइन नहीं जान पड़ता। वैसे इस पार्टी को बने अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, लिहाजा अभी से उसके बारे में एक निराशावादी राय बना लेना भी ठीक नहीं होगा।
सेमीफाइनल तो देखा अब फाइनल देखिए
देश का नया जनमानस क्या सोच रहा है और उसकी पसंद-नापसंद क्या है, इसका अंदाजा हाल में दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे को देखकर लगाया जा सकता है। हालांकि इन राज्यों के साथ पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम के भी चुनाव हुए थे पर उसकी चर्चा यहां हम नहीं कर रहे हैं। उत्तर और मध्य भारत के चार सूबों के चुनावी नतीजे को देखकर कहा जा सकता है कि जनता को अब 'ठग प्रवृत्ति’ की राजनीति के जाल में आसानी से नहीं फंसाया जा सकता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को यह भरम हो चला था कि जिस तरह वह केंद्र में मनरेगा जैसी मेगा लोक कल्याणकारी योजना के बूते वह दोबारा सत्ता में आई, वह जादू वह राज्यों में भी चला पाएगी। मुफ्त अनाज बांटने की उसकी अफरातफरी में लाई गई योजना अगर जनता के बीच बेअसर साबित हुई तो इसलिए क्योंकि भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर सरकार के पास कहने के लिए कुछ नहीं था।
नरेंद्र मोदी इस मामले में अपने तमाम सियासी प्रतिद्बंद्बियों पर इसलिए भी भारी पड़े क्योंकि उनके पास विकास और सुशासन का गुजरात मॉडल है। इसलिए वह जब जनता के बीच जाते हैं तो करके दिखाएंगे के साथ करके दिखाया वाले भरोसे से बोलते हैं। जेल में बंद नेताओं को चुनाव लड़ने का हक दिलाने वाले सरकारी बिल को फाड़कर रद्दी की टोकड़ी में फेंकने की बात करने वाले कांग्रेस के युवराज तमककर भले लाख बड़ी बातें करें पर उनकी कथनी का सपोर्ट न तो केंद्र में उनकी पार्टी की अगुवाई वाली सरकार करती है और न ही राज्यों में उनकी सरकारें।
दिल्ली चूंकि पिछले कम से कम तीन सालों में भ्रष्टाचार और निर्भया कांड के विरोध में सड़कों पर उतरी सिविल सोसायटी के गुस्से का चश्मदीद भी रही, इसलिए यहां के चुनाव परिणाम में एक अलग रेखांकित करने वाली बात दिखी। दिल्ली में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई और आप ने अपने प्रदर्शन से सबको चौंकाया। भूला नहीं है देश वह दृश्य जब निर्भया की मौत के बाद जंतर मंतर पर उसकी तस्वीर के आगे मोमबत्ती जलाने आईं तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जनता के गुस्से का इस तरह सामना करना पड़ा कि सुरक्षाकर्मियों को उन्हें वहां से काफी मशक्कत से सुरक्षित बाहर निकालना पड़ा। दिल्ली में भाजपा की चूक यह रही कि वह इस जनाक्रोश को उस तरह अपने पक्ष में इनकैश नहीं करा सकी, जैसी सिविल सोसाइटी के बीच से निकली एक नई पार्टी ने।
बात करें मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तो यहां कांग्रेस विपक्ष में थी। वह चाहती तो अपने को एक साफ-सुथरे विकल्प के रूप में जनता के सामने ला सकती थी। पर जनता ने परिवर्तन का रास्ता शायद इसलिए नहीं चुना क्योंकि उसनेनए सपनों और वादों-इरादों की बजाय कर्मठ सरकारों का हाथ मजबूती से थामे रखना जरूरी समझा।
लोकप्रिय ही नहीं तत्पर भी
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी आज हर दूसरे दिन देश के किसी हिस्से में वहां के लोगों को संबोधित कर रहे हैं। उन्हें सुनने न सिर्फ उनके समर्थक बल्कि स्थानीय लोग भी बड़ी तादाद में आ रहे हैं। कई जगहों पर तो लोग शुल्क देकर उन्हें सुनने आ रहे हैं। भारतीय राजनीति में किसी नेता को लेकर इस तरह का आकर्षण काफी समय बाद देखने को मिल रहा है।
हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों के दौरान मोदी चुनावी राज्यों के अलावा यूपी, बिहार, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर भी गए। ऐसा वे इसलिए भी कर रहे हैं क्योंकि लोकसभा चुनाव को लेकर एजेंडे को वह अपनी तरफ से समय से पहले ही शक्ल दे देना चाहते हैं। यह जोखिम नहीं बल्कि एक साहसिक पहल है। अगर खुद को आप देश के मुकम्मल नेता की तरह जनता के बीच ला रहे हैं तो फिर आपका मानस और आपकी तैयारी भी मुकम्मल होनी ही चाहिए। पिछले दिनों दिल्ली में जब वे भाजपा कार्यकर्ताओं की रैली में बोले तो बिजली, सड़क, पानी से लेकर उद्योग, पर्यटन और अर्थव्यवस्था तक पर अपनी सोच और चाह को रखा।
यही नहीं उन्होंने भारतीय जन-गण के नए मन तक भी पहुंचने की भरसक कोशिश की। कहा कि सरकार की योजनाएं और कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक उसमें जन भागीदारी न हो। अपनी यह बात कहते हुए वे प्रातिनिधिक की बजाय प्रतिभागी लोकतांत्रिक ढांचे की दरकार को भी कबूला। साफ है कि वे चुनावी राजनीति के परंपरावादी खांचे से खुद भी बाहर निकलने को तत्पर हैं। उनकी यह तत्परता लोकसभा चुनाव में उनकी रणनीतिक कुशलता भी साबित हो सकती है।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

आप नहीं बदलाव का सारथी


बीते तीन-चार दिनों के घटनाक्रम में देश की राजनीति ने अपने लिए नई व्याख्या और विमर्श की चौहद्दी को और बढ़ा दिया है। निराश वे लोग ज्यादा हैं जिन्हें अब भी लोकतंत्र की व्यवस्था 'इनक्लूसिव’ की जगह 'इंपोजिंग’ ही पसंद आ रही है। 21वीं सदी का दूसरा दशक देश में जिस तरह के लोकतांत्रिक तकाजे को बहस के केंद्र में लेकर आया है, उसकी बुनियादी दरकार ही यही है कि जनकल्याण का ढिंढ़ोरा पीटकर सियासी रोटियां सेंकने के दिन बीत गए। अब तो विकास का कोरा नारा भी व्यापक लोकमत के निर्माण में कारगर औजार साबित होगा, ऐसा कहना जोखिम भरा है। ये तमाम स्थितियां एक ही सवाल को बार-बार रेखांकित कर रही हैं कि जनता और सरकार का अस्तित्व एक दूसरे से जुदा या एक के ऊपर एक की बजाय साझा क्यों नहीं हो सकता? और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो फिर लोकतंत्र में लोक की उपस्थिति कहां है और किस भूमिका के साथ है?
जिन बीते तीन-चार दिनों की हम बात कर रहे हैं उसमें एक तरफ कांग्रेस पार्टी और उनके सबसे लोकप्रिय करार दिए जाने वाले नेता राहुल गांधी बार-बार ये समझाने में लगे रहे कि उनकी सरकार ने जनता को जितना अधिकार संपन्न बनाया है, उसके लिए जितने प्रत्यक्ष लाभाकरी कदम उनकी सरकार ने उठाए हैं, उतना किसी ने नहीं किया है। आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपनी इन उपलब्धियों के नाम पर जनता से वोट के रूप में अपने लिए श्रेय चाह रही है।
2००9 में जब कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए दोबारा सत्ता में आई थी तो सबने एक तरफ से कहा था कि मनरेगा का जादू काम कर गया। अब जबकि इस साल फिर चुनाव होने हैं तो मनरेगा जैसी मेगा योजना तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। यही नहीं इस दौरान यूपीए-एक और दो के कार्यकाल के कई बड़े घोटाले और वित्तीय अनियमितताओं के मामले भी इस दौरान सामने आए। सूचना के अधिकार कानून के तहत एक के बाद एक खुलासे हुए कि सरकार जिस तरह काम कर रही है, उसमें भ्रष्टाचार से चुनौती से निपटने का कोई कारगर मैकेनिज्म नहीं है। एकाधिक मामलों में सीएजी ने कहा कि फैसले लेने के तरीके में ही नहीं मंशा में भी गलतियां हुई हैं। ऐसे में 'पॉवर वैक्यूम’ से लेकर 'पॉलिसी पैरालाइज’ तक के तमगे सरकार को मिले। फिर इस बीच जिस तरह जनता महंगाई और विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार से जूझती रही, उससे कुल मिलाकर एक मोहभंग की स्थिति पैदा हुई।
दिलचस्प है कि राहुल गांधी इन स्थितियों के बावजूद चीजों को कामचलाऊ तरीके से समझना चाह रहे हैं। सुधार और परिवर्तन के नाम पर वे महज रफ्फूगिरी से काम चलाना चाहते हैं। अपनी गलतियों और असफलताओं को वे उपलब्धियां गिनाकर ढकना चाहते हैं। यह एक आत्मघाती सोच है। पहले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में जिस तरह पार्टी को मुंह की खानी पड़ी, उससे कांग्रेस उपाध्यक्ष की आंख अब तक खुल जानी चाहिए थी।
इस मोहभंग का भाजपा अपने तरीके से लाभ उठाना चाहती है। नरेंद्र मोदी के दबंग और सम्मोहक नेतृत्व को सामने लाकर पार्टी को लगता है कि केंद्र में दस साल की सत्ता की केंद्रित जड़ता को वह तोड़ देगी। मोदी अपनी तरह से विकास की बात करते हैं, देश के लोगों खासतौर पर युवाओं के पुरुषार्थ में भरोसा दिखलाते हैं, साथ भी बिजली, सड़क, पानी, उद्योग और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में गुजरात में किए गए अपने सफल प्रयोगों से लोगों में इस बार के चुनाव में परिवर्तन का विकल्प अपनी तरफ स्थिर करने का यत्न करते हैं। रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में जब वे बोलने के लिए खड़े हुए तो उनकी नजर में देश के नवनिर्माण का एक पूरा ब्लू प्रिंट था। उन्होंने लंबा भाषण ही नहीं दिया, तकरीबन सभी मुद्दों पर अपनी राय और सोच भी सबके सामने रखी।
पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एक बात में चूक कर रही है। वह चूक यह है कि जिस मतदाता के पास आखिरकार उन्हें जाना है, उसकी बदली सोच को रीड करने में दोनों से कहीं न कहीं भूल हो रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन के बाद मीडिया से लेकर देश में बहस के तमाम चौपालों पर अगर यह बात हो रही है कि देश वैकल्पिक राजनीति की तरफ बढ़ रहा है तो यह बात देश की दोनों बड़ी पार्टियों को न सिर्फ समझ में आनी चाहिए बल्कि इसका फर्क उनकी कार्यनीति और आचरण में भी आना चाहिए। सिर्फ यह कह देना कि प्रातिनिधिक की जगह प्रतिभाग के लोकतंत्र की तरफ हम कदम बढ़ाएंगे, काम नहीं चलेगा। देश की जनता के इस आंदोलनात्मक रुझान को पार्टियों को अपने विजन और एक्शन दोनों में ट्रांसलेट करके दिखाना होगा।
दोनों दलों को याद रखना पड़ेगा कि बीते तीन-चार सालों में जनता अगर एकाधिक बार भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ उतरी है तो यह कौल किसी पार्टी या नेता का नहीं था। देश की सिविल सोसाइटी ने अपने को आगे किया और देश में व्यवस्था परविर्तन की छटपटाहट को सड़क पर ला दिया। आम आदमी पार्टी इसी छटपटाहट का नतीजा है। यह पार्टी अपनी नीति और एजेंडे को लेकर आज जरूर कंफ्यूज्ड जरूर दिखाई पड़ती है पर उसके उन्नयन में कहीं न कहीं वैकल्पिक राजनीति की तलाश शामिल है।
आप से घबराए दलों के लिए शुक्र की बात यह है कि विचार और संगठन के स्तर पर उसकी लड़खड़ाहट साफ तौर पर जाहिर हो रही है। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद गवर्नेंस के स्तर पर उसे उम्दा प्रदर्शन करके मिसाल पेश करनी चाहिए थी पर वह अब एक अराजकतावादी राह पर है। आप दिल्ली विधानसभा चुनाव के रिफ्लेक्शन को लोकसभा चुनाव में भी देखना चाहती है। इसलिए वह और उसकी सरकार फिर से सड़क पर प्रतिरोधी तेवर के साथ दिखना चाह रही है। यह आप की रणनीति कम असफलता ज्यादा है। यह उस उम्मीद के साथ भी नाइंसाफी है, जो आप ने लोगों के मन में राजनीतिक बदलाव के नाम पर जगाई थी।
पर आप के भटकाव के बावजूद यह कहीं से साबित नहीं होता कि देश की राजनीति में विकल्प का खाली स्पेस भरने की दरकार ही खारिज हो गई। भारतीय जन-गण का नया मन परंपरावादी राजनीति से वाकई तंग आ चुका है। देश की राजनीति में एक नई ताजी बयार को महसूस करने की तड़प मुट्ठियां बांध चुकी हैं। इन बंधी मुट्ठियों की ताकत को समझना होगा। भाजपा और कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह एक ही तरह के पॉलिटिकल कल्चर में कहीं न कहीं ढ़ल चुकी हैं। नई स्थितियों में जनता के बीच, जनता के साथ और जनता के बल पर ये पार्टियां अगर अपनी ताकत को गुणित नहीं करती हैं तो वह अपने सामथ्र्य के साथ बेईमानी करेंगी। खासतौर पर यह उम्मीद भाजपा को लेकर ज्यादा है क्योंकि वह केंद्र में पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है। वह देश के नागरिक समाज के साथ बेहतर संवाद कर अपनी संभावना में जादुई पंख लगा सकती है।
एक बात और यह कि परिवर्तन का पेटेंटे किसी एक नेता या आदमी के नाम पर दर्ज नहीं होता है। इसलिए सिविल सोसायटी की सक्रियता और आप के उभार को लेकर घबड़ाई हुई प्रतिक्रिया वही लोग दे रहे हैं, जिन्हें लग रहा है कि जनता इस उभार के साथ बंधक की तरह साथ है। दरअसल, देश में जनतांत्रिक सशक्तिकरण एक सामयकि दरकार है और इस दरकार को अपने सारोकारों में शामिल कर जो भी दल या नेता आगे बढ़ेंगे जनता उसके साथ होगी।
 

सोमवार, 20 जनवरी 2014

फेयर-अफेयर मेहर

मेहर तरार। कल तक यह नाम भले अनसुना-अनजाना सा था। पर अब ऐसा नहीं है। यह नाम आज भारत और पाकिस्तान से लेकर दुबई तक पूरे मीडिया जगत की सुर्खियों में है। अलबत्ता यह जरूर है कि खुद मेहर को भी यह लोकप्रियता बहुत रास आ रही है, ऐसा आप नहीं कह सकते हैं। उस पर आरोप भी लगा कि वह पांच मिनट की सस्ती लोकप्रियता के लिए मर्यादा की सीमाएं लांघ रही है। उसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट तक ठहराया गया। मेहर चाहे जैसी भी है, उसने चाहे जो भी किया है पर इतना तो जरूर कह सकते हैं कि वह अपने इस अफसाने को इस दुखांत तक तो शायद नहीं ही ले जाना चाहती है, जहां आज यह पहुंच चुका है। सच कहें तो जिन वजहों से मेहर की चर्चा आज हर तरफ है, उसकी कल्पना शायद उसने भी नहीं की होगी। शुरुआत में उसका नाम आया केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री शशि थरूर के साथ उसके कथित अफेयर को लेकर। बाद में इस मामले में थरूर की स्वर्गीय पत्नी सुनंदा पुष्कर कूद पड़ीं।
सोशल मीडिया के जरिए चली इस लड़ाई में सुनंदा और मेहर ने एक दूसरे को खूब खरी खोटी सुनाई। एक तरफ उलाहना यह था कि कोई उनके पति पर डोरे डाल रहा है तो दूसरी तरफ से जवाब यह था कि यह सब कोरी बकवास है। आज जबकि सुनंदा इस दुनिया में नहीं हैं तो इससे मेहर भी कम दुखी नहीं हैं। सुनंदा की मौत के बाद जो कुछ शुरुआती प्रतिक्रियाएं ट्विटर के जरिए आईं, उसमें मेहर की तरफ से जताया गया अफसोस भी शामिल था। मेहर पाकिस्तान के लाहौर में रहती हैं। वह स्वतंत्र पत्रकार हैं और मशहूर अखबार 'डेली टाइम्स’ में काम कर चुकी हैं। दो मार्च 1968 को पाकिस्तान के लाहौर में जन्मी मेहर की शुरुआती पढ़ाई लाहौर के ही प्रेजेंटशन कॉलेज में हुई। इसके बाद उसने वहीं के किनैड़ कॉलेज से इंग्लिश लिटरेचर से एमए की डिग्री हासिल की।
शशि थरूर से अपने अफेयर को लेकर मेहर ने माना है कि वह उनसे दो बार मिल चुकी हैं। थरूर से उनकी पहली मुलाकात भारत में हुई और दूसरी बार वह दुबई में उनसे मिली थी। पर इससे ज्यादा शशि थरूर और अपने रिलेशन के बारे में कुछ भी मानने से इनकार करती है। जबकि सुनंदा ने जो खुलासे किए हैं ट्विटर पर उसमें मेहर शशि को पाने के लिए मचलती दिखती हैं। दरअसल यह पूरा मामला शशि थरूर के एक ट्वीट से शुरू हुआ, जिसमें एक पाकिस्तानी पत्रकार से उनके अफेयर की बात कही गई थी। बाद में पता चला कि शशि थरूर की जगह उनकी पत्नी इस तरह के ट्विट कर रही थीं। अफेयर की बात सामने आने पर मेहर ने कहा था कि वह एक मां हैं और उनके लिए परिवार पहली प्रथामिकता है। इस विवाद के बाद मेहर ने अपनी प्रोफाइल में खुद को एक मां और पत्रकार बताया।
मेहर पाकिस्तानी पंजाबी हैं। दुनिया भर में घूमने वाली मेहर अपनी फोटो भी ट्विटर पर शेयर करती रहती हैं। वह भारतीय फिल्मों और संगीत की दीवानी हैं और हिदी गानों के नए वीडियो अक्सर शेयर करती रहती है। हालांकि अब उनका नाम जिस दुखद प्रसंग से जुड़ गया है, उसमें कहना मुश्किल है कि वर्चुुअल वर्ल्ड को लेकर उसका आकर्षण यों ही बरकरार रहेगा कि नहीं।

 

बुधवार, 15 जनवरी 2014

कुछ कहता है भट्ट साहब का अफसोस


आलिया भट्ट को सैफई नहीं जाना चाहिए। यह इस तरह के आयोजन में शामिल होने का सही वक्त नहीं था। किसी भी संवेदनशील कलाकार को यह समझना चाहिए कि एक तरफ जहां राज्य में लोग डर और अभाव के बीच सर्द रातें काट रहे हैं, वहां सरकारी खर्चे पर भड़कीला आयोजन करना एक वीभत्स हिमाकत है। इसकी आलोचना होनी चाहिए। पिता महेश भट्ट अपनी बेटी के सैफई महोत्सव में शिरकत करने पर अपनी वेटी तरफ से कुछ इन्हीं वजहों से अफसोस जता रहे हैं। हालांकि बॉलीवुड के दबंग सलमान खान को यह सब रास नहीं आ रहा है। सलमान सैफई में आलिया के साथ मंच पर नाचने-गाने वालों में शामिल थे। उन्होंने आलिया के पिता के अफसोस पर कहा, 'भट्ट साहब, आलिया की तरफ से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं है। आपने उसकी परवरिश बहुत बेहतरीन तरीके से की है। वह बहुत मेहनती और समर्पित लड़की है और गरिमा के साथ अपने करियर में आगे बढ़ रही है।’
दरअसल, इस पूरे प्रसंग में सत्य इधर या उधर नहीं बल्कि कहीं बीच में टिका है। न्यू क्रिटिसिज्म का बहुत ही पॉपुलर टर्म है- 'टेक्स्ट’। इस पूरे घटनाक्रम के टेक्स्ट पर जाएं तो समय, संदर्भ और घटना को हम थोड़ा समन्वित रूप में समझ पाएंगे। समाज और राजनीति के लिए मौजूदा दौर नए विमर्श और नए निकष का है। दिलचस्प है कि जिस 21वीं सदी को सूचना तकनीक की सदी कहकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी अपने को यशस्वी कर रहे थे, वह एक दशक बीतते-बीतते उन सरोकारों और दरकारों के आमने-समाने आ गया, जिसकी इससे पहले किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। आमजन की ताकत और उसकी संवेदना महज सभ्य समाज और लोकतंत्र की मौलिक अवधारणाओं में ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह महत्व प्रत्यक्ष तौर पर जाहिर और महसूस भी होना चाहिए। दरकार और सरोकार के इस लोकतांत्रिक साझे को लेकर पिछले दो-तीन सालों में देश की जनता एकाधिक बार सड़कों पर उतरी है। दलगत लोकतंत्र के साढ़े छह दशक के अभ्यास में भारत में संभवत: यह पहली स्थिति रही, जब स्पष्ट विचार, संगठन और नेतृत्व के बिना जनता महज इस दरकार से घर से बाहर निकलने को बार-बार मजबूर हुई क्योंकि वह लोकतंत्र में अपनी कथित स्थिति और शिनाख्त को नए सिरे से महसूस करना चाह रही थी।
अण्णा हजारे या उनके नाम से जानी गई टीम जनता की इस तड़प को पूरी तरह एड्रेस कर पाई या नहीं, यह तो कहना मुश्किल है। पर यह जरूर कहा जा सकता है कि जनलोकपाल आंदोलन ने इस दलील को जरूर एक निर्णायक अंजाम तक पहुंचाया कि जनता की भूमिका को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पांच साल में एक बार मतदान के लिए कतारबद्ध होने तक नहीं सीमित किया जा सकता है। जनता अगर लोकतंत्र की सार्वभौम इकाई है तो उसका सामथ्र्य सरकार और शासन की व्यवस्था में भी दिखना चाहिए। प्रातिनिधिक लोकतांत्रिक ढांचे का यह कतई मतलब नहीं कि जन प्रतिनिधि और संसद जनता के ऊपर अपनी सर्वोच्चता को लाद दें।
मुजफ्फरनगर दंगे की टीस की अगर आप इस टेक्स्ट को सामने रखते हुए समझें तो साफ दिखेगा कि सरकार और शासन की संवेदनहीनता हमारी कथित लोकतांत्रिक महानता को किस कदर सामने से मुंह चिढ़ाती है। अखबारों के पन्ने और टीवी चैनलों के कैमरे यह चीख-चीखकर कहते रहे कि मुजफ्फरनगर में दंगे के बाद वहां से उजड़े परिवारों की स्थिति अब भी ठीक नहीं है। जिन लोगों ने राहत कैंपों में शरण ली, वे वहां से घर वापस जाना नहीं चाह रहे थे। रही कैंपों की स्थिति तो सर्दी और पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में वहां बच्चों की जानें जा रही थी। दूसरी, तरफ इस जख्म पर हर तरफ से सियासी रोटियां सेंकी जाती रहीं। आलम यहां तक रहा कि पीड़ितों की शिनाख्त तक पर सवाल उठाए गए। इस बीच सेक्यूलरवादी तकाजे पर खरा उतरने के लिए मुआवजे की बढ़ी राशियों की घोषणा प्रदेश सरकार करती रही। ध्यान देने की बात है कि यह सब तब हो रहा था जब एक तरफ तो पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिए मत डाले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव के लिए सियासी बिसातें बिछनी शुरू हो गई थी।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार बड़ी बहुमत से आई है। सरकार चलाने के लिए अंक जुटाने का दबाव सरकार के आगे नहीं है। पर क्या यह ठसक जनता की चुनी गई सरकार को जनता के ऊपर मनमर्जी के शासन का क्या लाइसेंस थमा देती है? क्या सरकार में बने रहने का पांच साल का इत्मीनान इतना संवेदनहीन हो सकता कि सरकार जनता की तकलीफ में उसके साथ खड़े होने की बजाय उसके आगे सरकारी वैभव का भोंडा प्रदर्शन करे। ...और मीडिया जब इस बारे में मुख्यमंत्री या सरकारी दल के नेताओं से बात करे तो उसे फटकारा जाए। कम से कम पिछले दो हफ्ते में जब तक सैफई महोत्सव चलता रहा, यह सवाल सरकार के आगे बार-बार उठाया गया कि वह अपने आचरण से कम से कम अपने ही प्रदेश के एक हिस्से के हजारों लोगों की तकलीफ को कम करने की कवायद करते हुए अगर वह न भी दिखे तो कम से कम उसका क्रूर उपहास करते हुए भी कम से कम न दिखे।
गौरतलब है कि एक ऐसे दौर में जब जनता, सरकार और सादगी का साझा राजनीतिक संस्कृति के बदलाव को जरूरी बना रहा हो, कोई सरकार इस पूरी स्थिति को महज इसलिए खारिज कर दे कि उसके आगे चुनाव में उतरने का तात्कालिक दबाव नहीं है तो इसे आप क्या कहेंगे। महेश भट्ट बहुत संवेदनशील इंसान हैं या अगर वह किसी बात पर अपनी तरफ से अफसोस जता रहे हैं तो उसके बहुत मायने हैं, ऐसा नहीं है। खुद भट्ट साहब के कई बयान पिछले महीनों-सालों में ऐसे आए हैं जिसमें उनकी बौद्धिकता और मानसिकता को लेकर सवाल खड़े हुए हैं। पर बहरहाल, भट्ट साहब उस देशकाल को जरूर पढ़ने-समझने में कामयाब रहे हैं, जिसको लेकर आज हर तरफ बात हो रही है। सलमान खान ने उनकी बेटी का पक्ष लेकर बस इतना भर जताया है कि एक फिल्मी कलाकार की भूमिका के दायरे को रातोंरात इतना विस्तार देना ठीक नहीं जिसमें वे सोशल चेंज के एजेंट के रूप में प्रभावी दिखने लगे। यह एक आदर्श दरकार जरूरी हो सकती है पर इसके जरूरी होने के लिए राजनीति, समाज और सिनेमा को अभी बदलाव के कई पाठ पढ़ने-सीखने होंगे।
अलबत्ता महेश भट्ट का अफसोस उस सरकारी संवेदनहीनता को जरूर एक बार फिर से कठघरे में ले आई, जिस पर सवाल आज हर तरफ से उठ रहे हैं। अगर एक पिता अगर अपनी बेटी को सार्वजनिक रूप से यह नसीहत दे कि उसे कहां जाना चाहिए और कहां नहीं, इसका निर्णय करने से पहले उसे उस टेक्स्ट को भी जरूर ध्यान में रखना चाहिए, जो उसके समय और परिवेश को रचते हैं, तो इस सीख को आप यों ही खारिज नहीं कर सकते हैं ै। इस प्रसंग की आज हर तरफ चर्चा है तो इसलिए कि जनता अब अपने ऊपर शासन के अट्टहास को सहन करने को तैयार नहीं है।

कई विधाओं की अकेली मल्लिका

मल्लिका साराभाई। इस नाम को लोग अलग-अलग वजहों से जानते हैं। जानने वालों के बीच उनकी छवि भी एकाधिक है। खुद मल्लिका भी अपनी शख्सियत के किसी एक रंग को नहीं बल्कि उन तमाम रंगों को पसंद करती हैं, जिनमें उनकी रुचि और इच्छा का इंद्रधनुषी मेल हो। यही वजह है कि कुचिपुड़ी और भरतनाट्यम की कुशल नृत्यांगना के अलावा मल्लिका की ख्याति नाट्य कलाकार, अभिनेत्री, लेखिका, समाज सेविका तथा महिला असुरक्षा और सांप्रदायिकता जैसे ज्वलंत मुद्दों पर मुखरता के साथ सामने आने वाली एक प्रभावशाली महिला के रूप में भी है। मल्लिका अपनी इन तमाम दिलचस्पियों और खुबियों को एक शब्द में यह कहते हुए बयां करती हैं कि वे कुल मिलाकर एक कम्यूनिकेटर हैं। चूंकि वह खुद को एक बेहतर कम्यूनिकेटर के रूप में लोगों के सामने लाना चाहती हैं, इसलिए वह तमाम विधाओं में हाथ आजमाती हैं।
मल्लिका इन दिनों चर्चा में इसलिए हैं कि वे आम आदमी पार्टी में शामिल हो रही हैं। वह कह रही हैं कि देश में अब तक की राजनीतिक व्यवस्था और उसमें शामिल दल फेल साबित हुए हैं, लोगों की उम्मीद पर खरा उतरने में। यह जनता की उम्मीदों के साथ एक धोखे की तरह है। मल्लिका इससे पहले भी भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता विरोध के मुद्दे पर काफी मुखरता से पेश आई हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार से इसलिए उनका छत्तीस का संबंध है क्योंकि वह गुजरात दंगों को लेकर सरकार और प्रशासन की भूमिका के बारे में लगातार सवाल उठाती रही हैं।
मल्लिका की शख्सियत में जिस तरह की निर्भीकता और जीवंतता है, उसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी काफी योगदान है। वह प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई और ख्यातिलब्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की बेटी हैं। नौ मई 1954 को को अहमदाबाद में जन्मी मल्लिका को घर में ही काफी सुसंस्कृत और सुशिक्षित माहौल मिला। आगे के जीवन में मल्लिका के जीवन में इसका असर देखने में भी आया। उन्हें नजदीक से जानने वाले भी कहते हैं कि उनके जीवन की कई छटाएं हैं। कभी तो वह अपनी बातचीत और पहनावे से एक अति आधुनिक महिला लगती हैं तो कभी परंपरा और संस्कृति के प्रति उनका प्रेम देखकर दंग रह जाना पड़ता है। एक समृद्ध और जानेमाने परिवार से ताल्लुक रखने वाले के बावजूद आमजन की चिंताओं से भी वह लगातार जुड़ी रही हैं। यही कारण है कि उनकी गिनती एक समर्पित समाज सेविका के रूप में भी होती है।
नृत्य कला और अभिनय के क्षेत्र में तो उनके दखल का लोगा सब मानते हैं। उन्होंने दुनिया के कई देशों में अपनी इस निपुणता से लोगों की सराहना बटोरी है। इसू तरह समानांतर सिनेमा में उनके योगदान को सभी रेखांकित करते हैं। कहकशां, कथा, मुट्ठी भर चावल, हिमालय से ऊंचा और सोनल उनकी यादगार फिल्में हैं। रंगमंच पर उनका अभिनय काफी सम्मोहन भरा रहा है। 1989 में जब वह सोलो परफार्मेंस के साथ 'शक्ति’ नाटक लेकर लोगों के सामने आईं तो उनकी प्रशंसा दर्शकों ने तो की ही, आलोचकों की नजर में भी खरी उतरीं। उन्होंने हर्ष मंदर की अनहर्ड वॉयसेज का नाट्य रुपांतरण 'अनसुनी’ नाम से किया। इसी तरह ब्रेख्त के एक नाटक का भी उन्होंने भारतीय संदर्भ में रुपांतरण किया।
बात करें राजनीति की तो इस क्षेत्र में मल्लिका का नाम तब अचानक पूरे देश में चर्चा में आ गया जब उन्होंने 2००9 में भाजपा के दिग्गज लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ गांधीनगर से चुनाव लड़ने का फैसला किया। विभिन्न क्षेत्रों में अपने अवदानों के लिए भारत सराकर की तरफ से पद्म भूषण सम्मान से नवाजी जा चुकीं मल्लिका साराभाई कई बार विवादों में भी फंसी है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कबूतरबाजी का मामला। हालांकि मल्लिका का कहना है कि यह सब उनकी वैचारिक प्रतिब्धदता और मुखरता के कारण उनके खिलाफ एक साजिश भर है।
बहरहाल, मल्लिका साराभाई आज भी देश की उन गिनी चुनी शख्सियतों में शामिल हैं, जिनकी उपस्थिति को कहीं भी गरिमामय माना जाता है और जिनके विचार और काम के पीछे एक सार्थक तर्क होता है।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

चुनाव महज मोदी और राहुल के बीच नहीं


नरेंद्र मोदी अगर 2०14 में देश के प्रधानमंत्री होते हैं तो यह अनिष्टकारी होगा। नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन के बाद हाल में मनमोहन सिंह इस बात को अलग-अलग तरीके से कह चुके हैं। इस सिलसिले में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता और रणनीतिकार योगेंद्र यादव के बयान का भी जिक्र जरूरी है। उनके कहने का तरीका थोड़ा भिन्न है। वे लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल के तौर पर देखने पर ही लानत भरते हैं। उनका बयान अमत्र्य और मनमोहन के बयान के करीब से जरूर गुजरता है पर उसकी मंजिल कहीं और है। वे सिर्फ व्यक्ति केंद्रित राजनीति पर सवाल नहीं उठाते बल्कि साथ ही इस दरकार को भी तार्किक रूप से रेखांकित करते हैं कि लोकतंत्र में चुनाव का मतलब सीएम या पीएम चुनना भर नहीं है और न ही इस या उस पार्टी की हार भर है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो चुनाव उस महापर्व का नाम है, जिसमें देश और समाज का हर वर्ग बराबरी के साथ शिरकत करता है। यह शिरकत सरकार बनाने या गिराने से ज्यादा उस गुंजाइश को बहाल रखने के लिए अहम है, जिसमें एक समान्य जन भी अपने हाथ में सत्ता की चाबी संभाल सकता है। यही लोकतंत्र की महानता है, उसकी ताकत है।
बहरहाल, बात इस चर्चा के जरिए उस लोकतांत्रिक मानस की जिसमें बदलाव की बात आज हर तरफ हो रही है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की बनी सरकार ने इस बदलाव की संभावना को कहीं न हीं ज्यादा पुष्ट कर दिया है। देश में पिछले कम से कम तीन सालों के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के केंद्र में जनता की ताकत और उसका निर्णायक सहभाग कैसे सुनिश्चित हो, यह एक बड़ा मुद्दा बना है। बात विकास की हो, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य की हो तो स्थानीय जनता की जरूरत की सर्वोपरिता समझी जा सकती है। नागरिक समाज को खड़ा करने से निश्चित रूप से एक अनुशासित लोकतंत्र को खड़ा होने में मदद मिलेगी।
देश में अब तक आम आदमी पांच साल में एक बार मतदान की कतार में खड़ा होकर अपने लोकतांत्रिक अधिकार और कर्तव्य को पूरा करता रहा है। इससे आगे उसके करने और समझने की कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई है। इस कारण सत्ता से जनता की दूरी बढ़ी है और सत्ता को लेकर एक अविश्वास का जनमानस भी बना है। ऐसी स्थिति लोकतंत्र की मौलिक अवधारणा के भी खिलाफ है। पिछले दिनों जन प्रतिनिधियों से लेकर संसद की सर्वोच्चता पर जब बहस छिड़ी तो मौजूदा राजनीति के माहिरों को यह काफी अखड़ा भी। भारत में जिस तरह का लोकतंत्र है और हमारा संविधान जिसकी व्याख्या करता है उसमें संसद निस्संदेह सर्वोच्च नियामक संस्था है। पर इससे यह आशय कैसे निकल सकता है कि संसद की यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है। और अगर जनता सर्वोच्च है तो फिर उसे अपनी यह सर्वोच्चता साबित करने का मौका पांच साल में महज एक बार क्यों मिले। लिहाजा, आज अगर इस सवाल को लोग लोकसभा चुनाव से पहले उठा रहे हैं कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, तो इसमें नामों को लेकर आग्रह-दुराग्रह तो दिख रहा है, पर यह सवाल कहीं पीछे छूट जा रहा है कि नामों और दलों की शिनाख्त के आधार पर देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए हो रही कोशिशों के सिलसिले को एक कारगर अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता है।
जेपी चौहत्तर आंदोलन के दिनों में बार-बार कहते रहे कि हमें 'कैप्चर ऑफ पॉवर’ नहीं बल्कि 'कंट्रोल ऑफ पॉवर’ चाहिए। घटनाक्रमों में तेजी से आए बदलाव के कारण जेपी का लोक समिति और लोक उम्मीदवार का प्रयोग बहुत कारगर नहीं हो सका। संपूर्ण क्रांति के शीर्ष व्याख्याकार आचार्य राममूर्ति ने भी माना कि चौहत्तर के लोकनायक के प्रयोग को महज सत्ता परविर्तन के तौर पर देखना, उन तमाम मुद्दों और संभावनाओं के प्रति अन्याय है, जिसने जनता को तब काफी मथा था। केंद्र में जनता सरकार का आना महज इसका प्रतिफल कतई नहीं था।
आज जब बात हो रही है 2०14 के लोकसभा चुनाव की तो इसमें पिछले कुछ सालों में नागरिक समाज की उस पहल का तो अक्श दिखना ही चाहिए जिसने लोकतंत्र की ज्यादा सार्थक व्याख्या और भूमिका के प्रति लोगों के बीच भरोसा जगाया, जिनका धीरे-धीरे लोकतांत्रिक संस्थाओं और उसके निर्वाचन प्रक्रिया के प्रति ही मोहभंग होना शुरू हो गया था। आज मुद्दा यह नहीं है कि देश के अगले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे या राहुल गांधी। न ही यह मुद्दा है कि अगली सरकार केंद्र में यूपीए की बनती है कि एनडीए की। यहां तक कि मुद्दा यह भी नहीं है कि गठबंधन राजनीति के दौर में कौन किस गोद से छिटककर किस गोद में जाकर बैठ जाता है। बल्कि मुद्दा तो यह है कि क्या आगामी लोकसभा चुनाव वैकल्पिक राजनीति की बढ़ी संभावना को बढ़ाता है कि नहीं,जनता और सरकार के बीच की दूरी कम होती है कि नहीं। देखने वाली बात यह भी होगी कि केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाली पार्टी या उसका गठबंधन राजनीति को लोकनीति की तरफ ले जाने के लिए कितनी तत्पर दिखती है।
यहां यह साफ होने का है कि विकल्प और स्थानापन्न होने में फर्क है। कांग्रेस और भाजपा के बीच केंद्र के अलावा कई राज्यों में इतने भर का ही राजनीतिक संघर्ष है कि जनता अगर एक से दुखी होती है तो दूसरे को सत्ता सौंप देती है। ऐसा इसलिए नहीं कि जनता को इसके अलावा कुछ सूझता नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके आगे चुनाव ही यही है कि वह इन दोनों में से किसी एक की तरफ जाए। यह तो विकल्प की नहीं बल्कि स्थानापन्नता की राजनीति हुई। मतदान के दौरान चुनाव के विकल्प से जनता को दूर रखने की जड़ता को जो राजनीतिक शक्तियां बहाल रखना चाहती हैं, वो इस लिहाज से तो कमजोर जरूर हैं कि वे अपने आगे किसी अपारंपरिक विकल्प के खड़ा होने से घबड़ाती है।
पारंपरिक राजनीति के प्रतिष्ठान कितना ढहते हैं, यह इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प प्रतिफल होगा। यह प्रतिफल ही यह तय करेगा कि इस देश की जनता अपने लिए और अपने नाम पर चलने वाले तंत्र को पराए हाथों से कितना अपने हाथों में ला पाती है। पंजाबी के क्रांतिकारी कवि पाश सबसे खतरनाक स्थिति उसे मानते हैं जब हमारे सपने मर जाते हैं। आने वाला लोकसभा चुनाव देश के जन, गण और मन के लिए सुखद ही होगा, खतरनाक नहीं ऐसी कामना है। भले अमत्र्य सेन या मनमोहन सिंह इस कामना पर भरोसा न करें। योगेंद्र यादव की कामना जरूर ऐसी दिखती है और न भी दिखती हो तो इस देश का आम आदमी तो 16वीं लोकसभा के गठन को इन्हीं कामनाओं से आकार लेता देखना चाह रहा है।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

स्त्री संवेदना की खाकी

अरुणा बहुगुणा भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारियों को प्रशिक्षण देने वाली शीर्ष संस्था राष्ट्रीय पुलिस अकादमी (एनपीए) को पहली महिला निदेशक बनने जा रही हैं। उनका का नाम जिस तरह से अचनाक चर्चा में आया, उससे दो बातें जाहिर होती हैं। एक तो यह कि महिलाओं के लिए अब शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा बचा है जिसमें वे चोटी पर नहीं पहुंची हैं। भारत जैसे देश के लिए जो अब भी विकास का सिरमौर नहीं बल्कि उसकी रेस में शामिल भर है, यह और भी बड़ी बात है। दूसरी बात यह कि अब भी जब किसी क्षेत्र में किसी महिला को बड़ा पद या सम्मान मिलता है तो हम कहीं न कहीं चौंक उठते हैं। ऐसा महिलाओं की क्षमता के प्रति अंदर बसे पूर्वाग्रह के कारण है। हमें यह बड़ी बात इसलिए लगती है क्योंकि आमतौर पर आधी दुनिया की काबिलियत को लेकर हमारा नजरिया संदिग्ध रहता है।
बहरहाल बात अरुणा बहुगुणा की। कुछ दिनों तक यह नाम किसी तरह की चर्चा में शामिल नहीं था। आज गूगल सर्च पर उनका नाम लिखते ही तकरीबन पचास हजार पन्ने खुलते हैं। इन वेब इंट्रीज में उनकी तस्वीरें, उनके लिए बधाइयां और उनके बारे में काफी तरह की जानकारियां शामिल हैं। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की विशेष महानिदेशक अरुणा बहुगुणा एनपीए का 28वां निदेशक बनेंगी। 1979 बैच की आंध्र प्रदेश कैडर की आइपीएस अफसर अरुणा फिलहाल दिल्ली में तैनात हैं।
हैदराबाद स्थित 65 साल पुराने एनपीए को सरदार वल्लभ भाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के नाम से भी जाना जाता है। अरुणा को एनपीए का निदेशक नियुक्त करने संबंधी आदेश जल्द ही जारी किए जाने की संभावना है। गत नवंबर में सुभाष गोस्वामी को भारत-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) का महानिदेशक नियुक्त किए जाने के बाद से ही एनपीए निदेशक का पद रिक्त है। शंकर सेन, त्रिनाथ मिश्रा, के विजय कुमार जैसे चर्चित आईपीएस अधिकारी एनपीए के प्रमुख रह चुके हैं।
अरुणा 1977 बैच के पश्चिम बंगाल कैडर के आईपीएस अधिकारी एस जयरामण की पत्नी हैं। जयरामण केंद्रीय गृह मंत्रालय में विशेष सचिव की हैसियत से आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। अरुणा को लेकर यह बात महत्वपूर्ण है कि उन्हें काबिलियत के मुताबिक अब तक कम ही अवसर दिए मिले हैं। इस कारण वह लंबे समय तक महज एक सामान्य अधिकारी के रूप में यहां-वहां काम करती रहीं। अरसे तक तक महत्वहीन पदों पर रहने के बाद अरुणा को अब निश्चित रूप से बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है। इससे पहले वह आंध्र प्रदेश में विशेष पुलिस बल में अतिरिक्त डीजी की हैसियत से काम कर चुकी हैं। फिलहाल वह सीआरपीएफ की अतिरिक्त महानिदेशक हैं। वह अग्निशमन दस्ते में भी काम कर चुकी हैं। उनकी नई भूमिका निश्चत रूप से उनके लिए चुनौतीपूर्ण होगी।
राष्ट्रीय पुलिस अकादमी देश भर में पुलिस सेवा में शामिल होने वाले अधिकारियों को हर उस तरह की ट्रेनिंग देने के लिए बनाया गया है, जिससे वे अपने कार्यक्षेत्र में किसी भी तरह की चुनौती का सामना कर सकें। आज देश में जिस तरह से अपराध का ग्राफ बढ़ रहा है, अपराध करने के तरीके बढ़ रहे हैं, उसमें पुलिस का काम काफी चुनौतीपूर्ण हो गया है। खासतौर पर महिलाओं को लेकर जिस तरह की संवेदनहीनता पूरे समाज में बढ़ी है, उससे पुलिस की मुश्किल काफी बढ़ गई है।
अरुणा खुद एक महिला हैं और वह इन स्थितियों को भली भांति समझती हैं। वह यह भी समझती हैं कि उनकी नई जिम्मेदारी उनके लिए एक अग्निपरीक्षा की तरह है। एक महिला में आत्मसम्मान के साथ काफी धीरता भी होती है। वह परिस्थिति को ज्यादा संवेदनशील तरीके से परख पाती है। उम्मीद है कि अरुणा एक महिला के रूप में यह सीख नए पुलिस अधिाकरियों को भलीभांति देंगी। अपनी नई नियुक्ति पर उन्होंने प्रसन्नता जताई है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि उनका नया कार्यकाल उनके लिए खुद को साबित करने का एक मौका है। नई कसौटी पर अरुणा खरी उतरें, ऐसी शुभकामना सबकी है।