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बुधवार, 17 अगस्त 2011

तुमसे अच्छा कौन है!

एक लकीर जब बहुत लंबी खिंच जाती है तो बाद के लकीरों के लिए इम्तहान बढ़ जाता है। क्योंकि तब उसे न सिर्फ एक सीध में लंबा चलना होता है बल्कि सबसे आगे निकलने का दबाव भी रहता है उसके ऊपर। पृथ्वीराज कपूर के बाद उनके खानदान के हर बारिस के आगे तकरीबन ऐसी ही चुनौती रही खुद को साबित करने की, सबसे आगे दिखने की। पर दिलचस्प है कि राज से लेकर करीना और रणबीर पूर तक ने लकीर के फकीर होने की बजाय अपनी मुख्तलिफ खासियतों को संवारना ज्यादा मुनासिब समझा।
शम्मी कपूर ने जब कैमरे के आगे आने का पेशेवर फैसला लिया तो उन्हें अपनी जमीन नए सिरे से तैयार करनी पड़ी। एक तरफ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर का फिल्म और थियेटर की दुनिया में बड़ा नाम और सम्मान था, तो दूसरी तरफ भाई शोमैन राज कपूर की लोकप्रिय छवि। लिहाजा नया कुछ करने और दिखने का दबाव तो था ही पर जोखिम भी था कि लोग उन्हें मंजूर करेंगे कि नहीं। आज यह बात तारीखी सियाही से लिखी जा चुकी है कि न सिर्फ शम्मी ने अपनी विशिष्ट नृत्य और  अभिनय शैली से अपनी अलग पहचान कायम की बल्कि 50-60 के दशक के हिंदी सिनेमा को काफी हद तक अपनी रंग में सराबोर भी रखा।
शम्मी अब हमारे बीच नहीं हैं तो उनके साथ काम करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों से लेकर पूरा फिल्म उद्योग और उनके लाखों चाहने वाले अपने इस मस्तमौला अभिनेता को अपनी-अपनी तरह से याद कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा का फलक एक तरफ जहां व्यापारिक रूप में ग्लोबल हुआ है, वहीं मुख्यधारा की फिल्मों से अलग प्रयोग और विकल्प की भी गुंजाइश भी बढ़ी है। यह गुंजाइश कला फिल्मों के यशस्वी प्रयोगकाल से नितांत भिन्न है। इसमें फिल्म माध्यम की क्षमता का विशुद्ध कलावादी या सार्थकता के आग्रह के साथ इस्तेमाल नहीं बल्कि कहानी कहने की नई शैलियों और नई कहानी  को परदे पर लाने की ललक ज्यादा है। दिलचस्प है हिंदी सिनेमा के इस बदलाव को देखना। तकरीबन 50 साल पहले जब शम्मी कपूर का जादू सिर चढ़कर बोलता था तो आलोचकों ने उनकी 'याहू' छवि को रिबेल स्टार की शिनाख्त दी। प्रेम की तरुणाई और तरुणाई के प्रेम को भारतीय समाज और परंपरा की बंद कोठरियों से खुली हवा में महकाने वाले इस बेजोड़ कलाकार को फिल्मों के रसिया इसलिए भी शायद कभी नहीं भूल पाएंगे कि पारिवारिक मर्यादाओं के खिलाफ बगैर बिगुल फूंके उन्होंने आधुनिकता और स्वच्छंदता का जो तिलिस्म परदे पर रचा, वह एक तरफ जहां खासा मनोरंजक था, वहीं दूसरी तरफ स्टारडम की खूबियों की मिसाल भी। इससे बढ़कर किसी कलाकार की सफलता क्या होगी कि उसके स्वर्णिम दौर के खत्म हो जाने के बाद भी उसकी अदाओं का जादू चलता रहे। जिन लोगों को राजेश खन्ना और जितेंद्र की शुरुआती दौर की फिल्में याद होंगी, वे इस बात को बेहतर कह पाएंगे कि कैसे इन दोनों सितारों की अभिनय और नृत्य शैली में शम्मी कपूर का अक्श झांकता था।
भारत के एल्बिल प्रेस्ले कहने जाने वाले शम्मी ने अपनी अंतिम सांसें जरूर अस्पताल में ली पर उनकी सक्रियता उनके जीवन के आखिरी दिनों तक बनी रही। वे शोहरत की दुनिया के उन सितारों की तरह नहीं थे, जिनका चमकना महज कुछ दिनों या एक दौर तक सीमित रहता है। साइबर और मोबाइल क्रांति के दौर में एक तरफ जहां उनका रुझान लगातार अध्यात्म की तरफ बढ़ता गया, वहीं वे इंटरनेट की दुनिया के भी बड़े सैलानी थे। इंटरनेट के साथ उनके संबंधों की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि वे इंटनेट यूजर्स कम्यूनिटी ऑफ़ इंडिया के संस्थापक अध्यक्ष थे। शम्मी कपूर की जिंदगी जीने की इस जिंदीदिल शैली के कारण ही उनके बच्चे और परिवार के अन्य लोगों को इस बात का कतई मलाल नहीं है कि वे अपने सफर को कहीं आधा-अधूरा छोड़ इस दुनिया से विदा हो गए। हां, यह जरूर है कि अब शायद ही उनके जैसा कोई फिल्मी दुनिया में आए, जिसे देख हम कह सकें कि 'तुमसे अच्छा कौन है'।

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